Kuberaa Movie Review: तो यह एक आम थ्रिलर की तरह शुरू होती है, लेकिन धीरे-धीरे यह परत-दर-परत खोलती है एक ऐसी सच्चाई, जो आज के दौर की सच्ची तस्वीर को सामने लाती है। इस फिल्म में न तो चमक-दमक वाला हीरो है और न ही क्लासिक स्टाइल में पेश की गई कहानी, लेकिन जो है वो आपको सोचने पर मजबूर करेगा।
कुबेर की कहानी अमीरी-गरीबी के बीच का वह पुल
फिल्म की शुरुआत समाज के सबसे निचले तबके से होती है भिखारियों से। ये वे लोग हैं जो हमारे रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कहीं न कहीं मौजूद तो होते हैं, लेकिन हम उन्हें देखना ही नहीं चाहते। कहानी का असली धागा जुड़ता है एक बेहद शक्तिशाली उद्योगपति नीरज मित्रा से, जिसका किरदार निभाया है जिम सर्भ ने। वह अपने स्वार्थ के लिए देश की नैतिकता को ताक पर रख देता है और सत्ता के गलियारों तक काले धन को पहुँचाने के लिए चार गरीब भिखारियों का इस्तेमाल करता है।
इन भिखारियों में से एक देवा, जिसका किरदार निभाया है धनुष ने, इस फिल्म की आत्मा है। वहीं दूसरी ओर दीपक तेज, जो पहले एक ईमानदार सीबीआई अफसर था, अब उसी भ्रष्ट व्यवस्था का हिस्सा बन गया है। नागार्जुन द्वारा निभाया गया यह किरदार दोनों दुनियाओं के बीच का वह पुल बनता है, जो यह दिखाता है कि ईमानदारी और मजबूरी के बीच कितनी बारीक सी लकीर होती है।
फिल्म की खूबसूरती सच्चाई का आईना और कुछ चुभती हुई बातें
‘कुबेर’ की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यह आज के समय की सबसे सटीक सामाजिक तस्वीर पेश करती है। यह सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि उस कड़वे सच का आईना है, जिसे हम देखना नहीं चाहते। फिल्म के कई दृश्य बेहद भावुक कर देने वाले हैं जैसे जब एक भिखारी की लाश को कुत्तों की गाड़ी में फेंक दिया जाता है, या जब जिम सर्भ का किरदार कहता है कि “भिखारियों के ना होने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता”।
इन दृश्यों में जो पीड़ा है, वह बनावटी नहीं, बल्कि सच्ची लगती है। निर्देशक शेखर कम्मुला ने जिस संवेदनशीलता के साथ इन दृश्यों को पेश किया है, वह काबिल-ए-तारीफ़ है। फिल्म यह कहने से नहीं हिचकती कि हम सभी किसी न किसी रूप में भिखारी हैं कोई पैसे का, कोई प्यार का, तो कोई पहचान का।
फिल्म का म्यूजिक और बैकग्राउंड स्कोर देवी श्री प्रसाद ने बखूबी तैयार किया है, जो हर भाव और दृश्य को और गहराई देता है। कैमरा वर्क भी शानदार है, जो फिल्म की भावनाओं को खूबसूरती से कैद करता है।
कुछ कमियां जो खटकती हैं
हर फिल्म में कुछ अधूरापन होता है और ‘कुबेर’ भी इससे अछूती नहीं है। फिल्म का पहला भाग जहां आपको पूरी तरह बांधे रखता है, वहीं दूसरे हिस्से में थोड़ी सुस्ती आ जाती है। कुछ दृश्य खासकर एक्शन और चेस के सीन्स दोहराव वाले लगने लगते हैं। फिल्म का क्लाइमेक्स थोड़ा कमजोर लगता है, जैसे मानो लेखक ने अचानक सबकुछ समेट दिया हो।
इसके अलावा फिल्म की लंबाई भी थोड़ी भारी पड़ती है। यदि इसे थोड़ा और संक्षिप्त किया जाता, तो इसका प्रभाव और भी गहरा हो सकता था। कहानी का एक बड़ा हिस्सा भिखारियों पर केंद्रित है, लेकिन उनकी निजी दुनिया में और गहराई से झांका जा सकता था।
अभिनय जो दिल में उतर जाए
धनुष ने फिर एक बार यह साबित कर दिया कि वह क्यों नेशनल अवार्ड विजेता हैं। उनका किरदार देवा जितना सरल है, उतना ही गहरा भी। उनके चेहरे के भाव, संवादों में मासूमियत और हर फ्रेम में ईमानदारी आपको बाँध लेती है। नागार्जुन का किरदार गहराई लिए हुए है, और उन्होंने उसे पूरी गंभीरता के साथ निभाया है। जिम सर्भ का निगेटिव किरदार एकदम सटीक बैठा है, और उनके संवाद सीधे दिल और दिमाग पर असर करते हैं। रश्मिका मंदाना की मौजूदगी फिल्म में हल्के पल जोड़ती है और उनका किरदार एक सुकून देता है। दिलीप ताहिल और सयाजी शिंदे जैसे दिग्गज कलाकारों ने भी अपने अपने किरदारों को अच्छे से निभाया है।
एक जरूरी फिल्म जो दिल को छू जाती है
‘कुबेर’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, यह एक अनुभव है। यह उन लोगों की कहानी है जिन्हें हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं, और उन सच्चाइयों की तस्वीर है जिनसे हम आंखें चुराते हैं। फिल्म में खामियां हैं, लेकिन इसकी भावना, संदेश और प्रस्तुति इन्हें कहीं पीछे छोड़ देती हैं। यह फिल्म आपको अपने भीतर झांकने पर मजबूर करेगी। यदि आप सिर्फ मसाला एंटरटेनमेंट की उम्मीद कर रहे हैं, तो यह फिल्म आपके लिए नहीं है। लेकिन अगर आप सिनेमा को एक सामाजिक दर्पण के रूप में देखना पसंद करते हैं, तो ‘कुबेर’ जरूर देखिए। यह उन फिल्मों में से है, जो ज़्यादा समय तक आपके दिल और ज़ेहन में बनी रहती हैं।
अस्वीकरण: यह लेख पूरी तरह से मौलिक और विश्लेषणात्मक है। इसमें दी गई जानकारी और विचार लेखक की समझ और समीक्षा पर आधारित हैं। किसी फिल्म, व्यक्ति या संस्था को ठेस पहुँचाने का उद्देश्य नहीं है। लेख का उद्देश्य केवल सिनेमा प्रेमियों को एक ईमानदार और मानवीय दृष्टिकोण देना है।
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